विशिष्ट पोस्ट

एक और षडयन्त्र

अनंत_वासुदेव_मंदिर भूवनेश्वर कि सर्वप्रथम पुरातन विष्णु मंदिर है ।पुरातन काल मे भूवनेश्वर को शैव क्षेत्र के रुप मे जानाजाता था यहाँ कई प...

सोमवार, 4 अगस्त 2025

ओडिशा के इतिहास का सबसे कलंकित अध्याय: एक हिंदू राजपूत ने जब श्रीमंदिर लुटा था

जब राजपूतों की बात उठती है, तो पूरे भारत के लोग कहते हैं कि वे महान देशभक्त, वीर और विवेकी थे। लेकिन जैसे-जैसे मुगलों ने उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व फैलाना शुरू किया, कई राजपूत भी उनके गुलाम बनने लगे।

ऐसे ही एक गुलाम राजपूत, केशो दास, के कारण ओडिशा और श्रीमंदिर सबसे अधिक लूटा और अपमानित हुआ।

मुगल सम्राट जहांगीर ने ओडिशा के पहले मुगल सूबेदार के रूप में हासिम खां (1607-1611 ई.) को नियुक्त किया था। इसके बाद मुगल बादशाह को संतुष्ट करने के लिए कटक जिले के जागीरदार और मुगल सेनापति केशो दास मारु ने श्रीजगन्नाथ मंदिर को लूट लिया।

यह जघन्य हमला आषाढ़ मास में विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा के आयोजन के समय श्रीक्षेत्र में हुआ था। श्रीगुंडिचा मंदिर में श्रीजगन्नाथ चतुर्द्धामूर्ति रथयात्रा के कारण विराजमान थे। उस समय सभी का ध्यान श्रीगुंडिचा मंदिर पर था। तभी केशो दास मारु ने बड़ी संख्या में राजपूत सैनिकों के साथ श्रीजगन्नाथ मंदिर में दर्शन के बहाने प्रवेश किया और रत्नभंडार को लूट लिया।

हिंदू राजपूत होने के बावजूद केशो दास मारु एक मुस्लिम गुलाम बन चुका था, जिसके कारण उसमें हिंदू धर्म के प्रति कोई आस्था नहीं बची थी। उसकी राजपूत सेना ने सेवक ब्राह्मणों पर अकथनीय अत्याचार किए और मंदिर से करोड़ों रुपये मूल्य के धन-रत्न लूट लिए।

गजपति पुरुषोत्तम देव (1600-1621 ई.) को इस लूट की खबर मिलने पर उन्होंने रथों और बड़ी संख्या में पैक सैनिकों की सहायता से मंदिर के चारों ओर रथों को खड़ा कर श्रीमंदिर को घेर लिया। खोर्धा गजपति के प्रचंड हमले से भयभीत केशो दास मारु ने कोई और उपाय न पाकर मंदिर और उसके परिसर में मौजूद छत, त्रास, आढे़णी, बैरख, और चांदुआ को फाड़ दिया। उसने मंदिर परिसर में मौजूद बांस के अगले हिस्से में कपड़ा लपेटकर उसमें तेल और घी डालकर आग लगा दी और मंदिर परिसर के बाहर चारों ओर खड़े रथों पर आग की लपटें फेंक दीं।

केशो दास के पराजित होने की खबर सुनकर बंगाल के सूबेदार इस्लाम खां ने खूजा ताहिर मोहम्मद बक्ति नामक सेनापति को सहायता के लिए ओडिशा भेजा। उसने ओडिशा के सूबेदार हासिम खां के साथ मिलकर केशो दास की मदद की। लेकिन गजपति की हार देखकर बक्ति ने उन्हें युद्ध बंद कर केशो दास के साथ संधि करने की सलाह दी।

गजपति राजा के सामने निम्नलिखित संधि की शर्तें रखी गईं:

(क) खोर्धा गजपति महाराजा पुरुषोत्तम देव अपनी पुत्री राजजमा कनकप्रतिमा देवी का विवाह जहांगीर से करेंगे।  
(ख) 9.3 लाख रुपये मुगल बादशाह को पेशकश के रूप में दिए जाएंगे।  
(ग) अपनी भगिनी का विवाह केशो दास के साथ कराएंगे।  
(घ) युद्ध में हुए नुकसान के लिए केशो दास को एक लाख रुपये क्षतिपूर्ति दी जाएगी।

श्रीमंदिर और तत्कालीन उत्कल देश को बचाने के लिए गजपति राजा को इन शर्तों पर सहमत होने के लिए मजबूर होना पड़ा। गुलाम हिंदू-विरोधी राजपूत केशो दास ने ओडिशा से एक बलवान हाथी और पांच मादा हाथियों को भी ले लिया। पिशाच जहांगीर को उपहार देने पर जहांगीर अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने केशो दास को 4 हजार अश्वारोही सेना का सेनापति बनाया, साथ ही एक पताका, मूल्यवान पोशाक, मणिमुक्ता-जड़ित खंजर, कमरपट्टी, एक तेज गति वाला घोड़ा, और रत्न-जड़ित जीन पुरस्कार के रूप में दी।

संधि के दौरान राजजमा कनकप्रतिमा देवी घोड़े पर सवार होकर चतुराई से नरसिंहपुर चली गईं और बाद में उन्होंने संबलपुर के राजा से विवाह कर लिया।

इस युद्ध में मान-सम्मान और धन-संपत्ति खोकर राजा पुरुषोत्तम देव दुखी मन से खोर्धा राज्य छोड़कर राजमहेंद्रा चले गए। एक हिंदू होने के बावजूद हिंदू-विरोधी नीति अपनाकर केशो दास मारु ने श्रीजगन्नाथ मंदिर को लूटा, जिसका विस्तृत वर्णन ओडिशा की मादलापांजी में किया गया है।

ओडिशा पर हमले से मिले इस अनुचित लाभ को देखकर गुलाम राजपूत और उनके मालिक मुल्ला उत्तर भारतीय बार-बार ओडिशा पर हमला करने से नहीं हिचकिचाए।

हासिम खां के बाद 1611 में एक अन्य राजपूत, कल्याण मल, ओडिशा का सूबेदार बनकर आया। लेकिन उसने दायित्व संभालते ही हमले शुरू कर दिए। इस दौरान उसने भारी मात्रा में सोना, चांदी, और संपत्ति लूट ली। 1617 में मकरम खां ने मंदिर में प्रवेश कर मनमानी संपत्ति लूटी। पुरी पर हमले के कारण भगवान जगन्नाथ को बाणपुर के गजपदा में गुप्त रूप से रखा गया। उसने भी बहुत सारी लूटी हुई संपत्ति ले ली।

आज उत्तर भारत में बहुत से लोग हिंदू-हिंदू चिल्लाते हैं, लेकिन यह अत्यंत कटु और हलाहल विष के समान सत्य है कि उनके ही पूर्वजों ने मुगल शासनकाल में मुस्लिम शासकों के चरण-चाटुकार बनकर हिंदू राज्य ओडिशा और हिंदुओं के परम आराध्य श्रीजगन्नाथ के मंदिर को अनुचित क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

(उक्त ऐतिहासिक तथ्य महाविद्यालय में पढ़ाए जाने वाली एक इतिहास पुस्तक से लिया गया है)

जन्मपाणी : जीवन का पहला स्पर्श

ओड़िया भाषा और संस्कृति में 'जन्मपाणी' शब्द एक अद्वितीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अर्थ रखता है। यह शब्द दो संदर्भों में प्रयुक्त होता है: वृक्षारोपण के समय पहला जलदान और नवजात शिशु का पहला स्नान। ये दोनों प्रसंग जीवन की शुरुआत और पुनर्जनन के प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं। ओडिशा की सांस्कृतिक परंपरा में यह शब्द पेड़ और शिशु दोनों के लिए जीवनदायी शक्ति का प्रतीक है।

वृक्षारोपण को एक पवित्र कार्य माना जाता है। जब किसी पेड़ का पौधा एक स्थान से लाकर दूसरे स्थान पर रोपा जाता है, तो उसकी जड़ों के साथ लगी मिट्टी को 'जन्ममाटी' कहा जाता है। यह मिट्टी पेड़ की मातृभूमि के समान है, जहां उसकी जड़ें पहली बार स्थापित होती हैं। रोपण के बाद पेड़ को दिया जाने वाला पहला जल ओड़िया भाषा में 'जन्मपाणी' कहलाता है। यह जल पेड़ को नए परिवेश में जीवन प्रदान करता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, जन्मपाणी पेड़ की वृद्धि और जीवित रहने के लिए अत्यंत आवश्यक है। जब पेड़ को उखाड़ा जाता है, तो उसकी जड़ें अर्धमृत अवस्था में पहुंच जाती हैं, क्योंकि मिट्टी से अलग होने के कारण जल और पोषक तत्वों का अवशोषण बाधित होता है। नए स्थान पर पौधा लगाने के बाद उसकी जड़ों को दिया जाने वाला जन्मपाणी जड़ों को नमी प्रदान कर मिट्टी से संबंध स्थापित करने में सहायता करता है। नए रोपे गए पेड़ की जड़ों को जन्मपाणी देने से जड़ों में मौजूद माइकोराइजा जीवाणु सक्रिय होते हैं, जो पेड़ के पोषक तत्वों के अवशोषण में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, जन्मपाणी मिट्टी में मौजूद हवा के रिक्त स्थान को कम कर जड़ों को स्थिर करता है, जो पेड़ की स्थायित्व के लिए जरूरी है।

ओड़िया संस्कृति में जन्मपाणी को पुनर्जनन का प्रतीक माना जाता है। जब एक पेड़ को एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर रोपा जाता है, तो वह एक नया जीवन शुरू करता है। यह प्रक्रिया पेड़ के पुनर्जनन के समान है और जन्मपाणी इस नए जीवन का पहला स्पर्श बनता है।
ओड़िया संस्कृति में नवजात शिशु के पहले स्नान को भी 'जन्मपाणी' कहा जाता है। पूर्णचंद्र भाषाकोश के अनुसार, यह स्नान शिशु के जीवन का पहला सांस्कृतिक रीति माना जाता है। पहले ओडिशा में लोग प्रायः उठियारी के दिन बच्चों को पहला स्नान कराते थे। कुछ लोग नवजात शिशु के अस्वस्थ होने पर बारआत या एकईशिया के समय पहला स्नान कराते थे। यह स्नान केवल शारीरिक शुद्धता के लिए नहीं, बल्कि शिशु का नए जीवन में स्वागत करने का एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, नवजात शिशु का पहला स्नान उसके स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। गर्भाशय में रहने के दौरान शिशु एक सुरक्षित और जीवाणुमुक्त परिवेश में होता है। जन्म के बाद वह बाहरी परिवेश के संपर्क में आता है, जहां जीवाणु और अन्य हानिकारक तत्व उसके स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। पहला स्नान शिशु के शरीर से जन्म के समय लगे रक्त, वर्निक्स (vernix), और अन्य अशुद्ध पदार्थों को हटाता है। यह शिशु की त्वचा को संक्रमण से बचाता है और थर्मोरेगुलेशन (शारीरिक तापमान नियंत्रण) प्रक्रिया में सहायता करता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार, पहला स्नान सामान्यतः जन्म के 24 घंटे बाद किया जाता है, जो शिशु की त्वचा पर मौजूद प्राकृतिक तैलीय पदार्थ को संरक्षित कर उसके स्वास्थ्य में सुधार लाता है।

ओड़िया संस्कृति में जन्मपाणी केवल शारीरिक शुद्धता नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया भी है। यह शिशु के नए जीवन में प्रवेश को पवित्र करता है। इसके साथ ही, जन्म के सातवें दिन के बाद शिशु के मुंह पर दी जाने वाली 'लाजपाणी' भी एक अनूठी परंपरा है। इस रीति के अनुसार, शिशु की मां उसके मुंह पर पहली अंजलि जल डालकर उसका मुंह धोती है। लोक विश्वास है कि जिस शिशु के मुंह पर उसकी मां लाजपाणी नहीं डालती, वह भावी जीवन में निर्लज्ज हो सकता है। इसलिए किसी निर्लज्ज व्यक्ति को लक्ष्य कर लोग कहते हैं, 'क्या उसकी मां ने उसके मुंह पर लाजपाणी नहीं डाला था?'

शिशु के जन्म के छठे, सातवें, आठवें या नौवें दिन होने वाले अनुष्ठान को ओडिशा में 'उठियारी' कहा जाता है। उस दिन अंतुड़ी आग जलाकर प्रसूति स्नान करती है और अंतुड़ीशाल साफ किया जाता है। प्रसव के सात दिन बाद इस उठियारी दिन अंतुड़ीशाल से राख आदि निकालकर साफ किया जाता है, जिसे 'अंतुड़ी उठाना' कहते हैं। इसके बाद मां और शिशु जो पहला स्नान करते हैं, उसे शिशु के संदर्भ में 'जन्मपाणी' और मां के संदर्भ में 'उठियारीगाधुआ' कहा जाता है।

'जन्मपाणी' और 'उठियारीगाधुआ' जैसे शब्द ओड़िया भाषा में एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। हिंदी, बंगला, मराठी या किसी अन्य भारतीय भाषा में इस शब्द के समान अर्थ वाला कोई शब्द नहीं मिलता। फिर भी, अन्य संस्कृतियों में वृक्षारोपण और शिशु के पहले स्नान से संबंधित कुछ रीति-रिवाज देखे जाते हैं। उदाहरण के लिए, जापानी संस्कृति में 'मियामैरी' रीति के अनुसार नवजात शिशु को आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मंदिर ले जाया जाता है, जो उसके जीवन की शुरुआत को पवित्र करता है। इसी तरह, भारतीय संस्कृति में 'अन्नप्राशन' या 'नामकरण' रीति शिशु के नए जीवन में प्रवेश को चिह्नित करती है। वृक्षारोपण के संदर्भ में, जनजातीय संस्कृतियों में पेड़ की पूजा की जाती है और उसे जीवनदाता के रूप में स्वीकार किया जाता है। उदाहरण के लिए, मैक्सिको की माया संस्कृति में पेड़ को 'जीवन का अक्ष' (axis mundi) माना जाता है।

फिर भी, 'जन्मपाणी' शब्द की विशिष्टता इसके दोहरे अर्थ में निहित है। यह पेड़ और शिशु दोनों के लिए जीवन की शुरुआत को चिह्नित करता है, जो ओड़िया संस्कृति में प्रकृति और मानव जीवन के प्रति गहरे सम्मान को दर्शाता है। यह शब्द ओड़िया भाषा की सांस्कृतिक समृद्धि को व्यक्त करता है और अन्य भाषाओं में इसकी अनुपस्थिति इसे और भी विशेष बनाती है।

'जन्मपाणी' ओड़िया संस्कृति में जीवन की शुरुआत और पुनर्जनन का एक शक्तिशाली प्रतीक है। यह वृक्षारोपण में जल के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व को और शिशु के पहले स्नान में स्वास्थ्य और सांस्कृतिक मूल्यों को एक साथ समन्वित करता है। यह शब्द ओड़िया संस्कृति के प्रकृति और मानव जीवन के प्रति गहरे संबंध को दर्शाता है। अन्य भाषाओं में इसके समान शब्द की अनुपस्थिति इसे और भी अनूठा बनाती है। जब हम पेड़ को जन्मपाणी देते हैं या शिशु को पहला स्नान कराते हैं, तो हम जीवन की पवित्रता को आनंद, सम्मान और कृतज्ञता के साथ मनाते हैं। यह परंपरा हमें प्रकृति और मानव जीवन के अंतरंग संबंध की याद दिलाती है।

“पेड़, पृथ्वी की सांस,  
और पेड़ के लिए जन्मपाणी  
जीवन का पहला स्पर्श ।”

नीलांबर रायसिंह भ्रमरवर : ढेंकानाल के एक स्मरणीय शासक

ओडिशा की ऐतिहासिक धरती ने कई महान व्यक्तित्वों को जन्म दिया है, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अविस्मरणीय योगदान दिया। इस माटी ने कई नीलांबरों को जन्म दिया है। एक प्रसिद्ध ओड़िया कवि थे नीलांबर दास, जिन्होंने 'जैमिनी भारत' और 'पद्मपुराण' का ओड़िया भाषा में अनुवाद किया। 'रुद्रस्तुति' और 'पुरुषोत्तम देउळ कार्य' उनके अन्य प्रमुख ग्रंथ हैं। एक अन्य कवि, जिन्हें नीलांबर भंज के नाम से जाना जाता है, हलदिया के राजा थे। उन्होंने 'कृष्णलीलामृत' और 'पंचसायक' नामक दो ग्रंथों की रचना की। नीलांबर शर्मा नामक एक पंडित भी इस धरती पर जन्मे, जिन्होंने पाश्चात्य पद्धति के अनुसार 'गोल प्रकाश' नामक संस्कृत गणित ग्रंथ की रचना की और लीलावती के गणित शास्त्र की टीका लिखी। उनका जन्मस्थान बलांगीर पाटना गड़जात था। नीलांबर विद्यारत्न एक प्रसिद्ध ओड़िया साहित्यकार और शिक्षाविद् थे, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में ओडिशा में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे, जिनका नाम नीलांबर दास था। मुगल शासनकाल में ढेंकानाल के एक राजा भी थे, जिनका नाम नीलांबर था।
17वीं शताब्दी में ओडिशा राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था। मुगल शासन का प्रभाव ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में था। 1633 में अंग्रेज व्यापारियों को मुगल सम्राट शाहजहां और ओडिशा के सूबेदार से व्यापार की अनुमति मिली थी। इस समय ओडिशा के गजपति बलभद्र देव थे, जिनके बाद उनके ताबेदार पुत्र राजा नीलांबर रायसिंह भ्रमरबर ने ढेंकानाल का शासन संभाला। 1650 में औरंगजेब ने बलपूर्वक दिल्ली का सिंहासन हासिल किया, जिसने ओडिशा में मुगल शासन के प्रभाव को और जटिल किया। इस कठिन समय में राजा नीलांबर ने ढेंकानाल का शासन संभाला और मुगलों व अंग्रेजों को अपने राज्य में प्रवेश करने से रोका।

राजा नीलांबर एक दूरदर्शी और चतुर शासक थे। उन्होंने ढेंकानाल में एक मजबूत सेना का गठन किया, जिसमें गजारोही, अश्वारोही, पैदल सैनिक, नागा और तेलंगा सैनिक शामिल थे। यह सेना भीमनगरी, हदगड़, करमूल, नुआगड़, डमरजा कटक, गोविंदपुर आदि किलों में सतर्क रहकर बाहरी शत्रुओं के आक्रमण का प्रतिरोध करती थी। राजा नीलांबर ने युद्ध के माध्यम से राज्य की सीमाओं का विस्तार करने की कोशिश न करते हुए आंतरिक व्यवस्था और सीमा सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया। जायगीरी पैक सैनिक युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहते थे, जिसने उनके शासन की स्थिरता को सुनिश्चित किया। उनके शासनकाल में ढेंकानाल में कोई अशांति नहीं हुई, जो उनके कुशल शासन कौशल को दर्शाता है।

राजा नीलांबर नृसिंह के परम भक्त थे। उन्होंने अपने राजगुरु के निर्देश पर पारिमल प्रगना की ब्राह्मणी नदी के तट पर कंतियो गांव में एक वैष्णव मठ की स्थापना की, जिसे ढेंकानाल का राजगुरुगादी के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि महंत, महापुरुष और हाकिम आदि के आसन या बैठने के स्थान को 'गादी' कहा जाता है। पवित्र ग्रंथों आदि को एकत्र रखने के स्थान को भी गादी कहा जाता है। महापुरुषों की समाधि को भी गादी कहा जाता है। शासकों के पद या अधिकार को भी गादी कहा जाता है। इसी तरह, महंत या महापुरुषों के मठ को भी गादी कहा जाता है। इसलिए, ढेंकानाल के कंतियो पुटसाही ग्राम पंचायत में दो गादियां हैं: महिमागादी-जका और राजगुरुगादी-कंतियो।

राजा नीलांबर ने कई ब्राह्मण शासनों की स्थापना की। उन्होंने पुरी क्षेत्र से मुसलमानों के अत्याचार से त्रस्त होकर आए श्रोत्रिय ब्राह्मणों को आश्रय दिया। उन्हें उचित सम्मान देकर उन्होंने स्वराजधानी से लगभग दस किलोमीटर दूर 'नीलांबर पुर' नामक शासन की स्थापना की और निष्कर लाखराज सनद प्रदान की। यह उनकी धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का एक उज्ज्वल उदाहरण है।

इसके साथ ही, राजा नीलांबर शैव और वैष्णव धर्म के समन्वयकर्ता थे। उन्होंने ढेंकानाल क्षेत्र में कई शिवलिंगों की स्थापना की और कपिलास, कुआंलो और नागना पीठों के प्रबंधन के लिए सुबनदोबस्त किया। ब्राह्मणी अववाहिका में स्थित अन्य शैव पीठों की सेवा और पूजा के लिए भी वे प्रयासरत रहे। यह सिद्ध करता है कि उनके शासनकाल में ढेंकानाल में एक समन्वयात्मक सांस्कृतिक परिवेश विकसित हुआ था।

राजा नीलांबर के शासनकाल में ओडिशा में राजनीतिक अनिश्चितता व्याप्त थी। 1658 में औरंगजेब के दिल्ली सिंहासन पर चढ़ने से ओडिशा में मुगल शासन का प्रभाव और बढ़ गया। इस परिप्रेक्ष्य में राजा नीलांबर ने अत्यंत सतर्कता के साथ शासन कार्य किया। उन्होंने पड़ोसी राजाओं और जमींदारों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे। हदगड़ में स्थापित सामंत वंश के बलराम सामंत के साथ उनकी आत्मीयता थी, जिसने उन्हें ढेंकानाल की सेना को मजबूत करने में मदद की। 1659 में खोर्द्धा के गजपति मुकुंददेव के साथ मित्रता स्थापित कर उन्होंने ढेंकानाल की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया। मयूरभंज और केनझर राज्यों पर मुगलों की लालची नजर थी, फिर भी ढेंकानाल स्वतंत्र रहा।

राजा नीलांबर रायसिंह भ्रमरबर का शासनकाल ढेंकानाल के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। उनका चतुर शासन, मजबूत सेना, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय ने उन्हें एक महान शासक के रूप में स्थापित किया। 1680 में उनके स्वर्गारोहण के बाद भी उनका योगदान ओडिशा के इतिहास में अमर है। उनके शासनकाल ने ढेंकानाल की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा में एक उल्लेखनीय अध्याय रचा।

**स्रोत:**
1. पूर्णचंद्र भाषाकोश: श्री गोपाल चंद्र प्रहराज
2. ढेंकानाल का ऐतिह्य और संस्कृति: पंडित अंतर्यामी मिश्र

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

अणसर ~ श्रीक्षेत्र पुरीमें हजारों वर्षों से प्रचलनमें एक अनोखा Quarantine

अणसरके बारे में जानते है आप ? यह एक ओडिआ शब्द है जो श्रीजगन्नाथ मंदिर से संबंधित है...

"अणसार हमारी संस्कृति का एक हजार साल पुराना
   Quarantine तरीका है।"

     हर जगन्नाथ प्रेमी जानता है कि रथ यात्रा से पहले हर साल भगवान जगन्नाथ प्रतीकात्मक रुपसे बुखार और सर्दी से पीड़ित होते हैं।  इसलिए ठाकुरजी को quarantine में या हमारी हिंदू परंपरा में जिसे "अणसार" कहा जाता है, उसमें रखा जाता है ...
और कितने दिन रखा जाता है ? 
जी 14 दिन, ठीक 14 दिन याद रखें।

  इस समय के दौरान भगवान हमारे मंदिर के रत्न सिंहासन पर न रहकर एक खास घर अणसर घर में अकेले रहते हैं। 

इस समय के दौरान, भगवान के दर्शन को रोक दिया जाता है, ठाकुरों को आयुर्वेदिक जड़ी बूटी, हर्बल दवा के साथ मिश्रित जड़ी बूटियों की पेशकश की जाती है, और पथ्य दिया जाता है।  यह परंपरा हमारे श्रीक्षेत्र के श्रीमंदिर में हजारों वर्षों से चली आ रही है, और यह आगे भी युहीं चलता रहेगा जब तक कि यह उड़िआ जाति का अस्तित्व  है ।

  और आज इकीसवीं सदी में,  पश्चिमी लोग आए और हमें सिखारहे कि quarantine 14 दिन का होना चाहिए !

हम हजारों वर्षों से श्रीजगन्नाथक्षेत्र में जिस प्राचीन भारतीय रोग निवारण प्रथाका अभ्यास कर रहे हैं ये विदेशी लोग आज हमें बता रहे हैं...

हमें हमारे पूर्वजों ने पर्वके माध्यमसे जीवनकी वैज्ञानिक पहलू को सिखाया था,समझाया था पर हम श्रीमन्दिर गये और मिठाई खाकर लौट आये...

हमारी आधुनिक पीढ़ी भी बहुत दूर चली गई है ! आजकलके पढेलिखे भारतीय कह रहे हैं कि हमारा हिंदू धर्म अंधविश्वाससे भरा हुआ है, यह एक गैर-वैज्ञानिक धर्म है

पर ये तथाकथित विज्ञान युगके बच्चे अपने परंपरा तौहार और जीवनशैली के अंदर छिपे वैज्ञानिकताको बिलकुल भी भांप नहीं पाती...

आज, पूरी दुनिया दहशत की स्थिति में है, कोरोनाको खत्म करने के लिए सभी  उस 14-दिवसीय quarantine की वकालत कर रहा है, जिसे हमारे पूर्वजों ने हजारों साल पहले निर्धारित किया था कि जब भी सर्दी के साथ बुखार हो तो व्यक्ति चाहे वो राजा हो या किसान उसे 14 दिनों के लिए अणसर यानी quarantine
करना है ।

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

उत्कल एक व्याख्या

यूं तो बर्तमान
ओडिशा का सबसे प्राचीन व लोकप्रिय नाम
हे कलिंग जो कि उससमय इतना प्रशिद्ध हुआ कि बादमें चीन से लेकर के मलेशिया इंडोनेशिया आदि क्षेत्रों में भारतीयों के क्लेंग,क्लिगं  तथा किल्गीं आदि नाम प्रचलित हो गया किंतु
बर्तमान ओडिशा का आधिकारिक नामों में से
एक उत्कळ भी कम् लोकप्रिय नहीं है...

आम तौर पर कहाजाता है कि
उत्+कळ=उत्कळ (ଉତ୍କଳ)

उत् (उ+क्विप्) एक उपसर्ग है
ओर उसके कई अर्थ है
जैसे :--उर्द्ध या उचांई में,सम्यक रुप से,इतःस्ततः,उच्चैस्वर में,उत्कट, उलटा,उत्कर्ष, समुचय,प्रश्न, वितर्क,अधिक आदि.....

वहीं कळ/कल शब्द एक धातु शब्द है
जो कि तीन मूल अर्थों में प्रयोग किया जाता है
1.गमन करना
2.गणना करना
3.शब्द करना
(ओडिआ भाषा में यन्त्र को ‛कळ’ भी कहाजाता है च्यूंकि उपरोक्त गुण उसमें पाये जाते है)

इसके अलवा कळ शब्द का एक विशिष्ट शब्द के रुप में भी बहुत से अर्थ होते है
जैसे कि..
୧.अत्यन्त मधुर ध्वनी(कल कल)
୨.भ्रमरों का गुंजन
୩.शाल वृक्ष
୪.शुक्र
୫.अंकुर
୬.अजीर्ण
୭.यन्त्र, कौशल
୮.सुविधा
୯.कन्दर
୧୧.वश्यता,अधीनता
୧୨.अधिकता
୧୩.मौका

ओर अब यदि इन सारे अर्थों को मिलाकर व्याख्या करें तो
कैसा होगा चलिए देखते है.......

1.जिस क्षेत्र के अधिवासी सदा उर्द्ध कि ओर गति करते है यानी जिनके मनमें
जाति धर्म के नाम पर
हीनता नहीं होता.....

2.जिस जाति कि गणना समस्त भारतीय जातिओं में आगे हुआ करता है(था)
यथा जो देश भारतवर्ष में उर्द्ध पर है अर्थात भूस्वर्ग है..

3.जिस भूभाग के अधिवासीओं के गर्जना(शब्द करना) मात्र से ही शत्रु उलटे पांव पलायन कर देता है

.......

1.जिस भूमि के अधिवासी सम्यक रुपसे
मधुरभाषी तथा साधु स्वभाव के होते है
वे अकारण किसी से वैर नहीं रखते ....

2.जो देश स्वर्ग सम उत्कर्ष है अतः वहां के नंदनकानन समान उपवनों में
भ्रमरें सदा कल कल गुंजन करते पाये जाते है...

3.जो देश  वहुधा शाल आदि
मजबूत वृक्षों के परिपूर्ण है तथा प्राकृतिक शोभा युक्त सौंदर्य शालिनी है ।

4.जिस देश की प्रशिद्धि शुक्र ग्रह समान
जाज्वल्यमान है ।

5.जिस उत्कर्ष कलाओं के देश में बौद्ध, जैन तथा महिमा धर्म से लेकर ओडिशी,छउ नृत्य स
आदि विभिन्न कलाओं का अकुंरोद्गम् हुआ है ।

6.जो देश व उसके अधिवासी उत्कट भीषण शत्रु के लिए भी अजीर्ण हो.....
ये वही जाति है कि शत्रु भी जीत न सका तो कलिगां साहासीका लिखकर चलता बना था......

୭.जो देश यन्त्र कौशालादि के लिए लोकप्रिय हो..

୮. जिस देश में जीवनयापन कै लिए सर्वाधिक सुविधा प्रकृति से मिला हुआ है ।अनेकानेक नदनदी,ह्रद,पर्वत तथा उपत्याकाओं से सजा जो देश स्वर्ग सम सुंदर हो.....

୯.जिस देश के अधिवासी
नीलकंदर निवासी श्रीजगन्नाथ महाप्रभु के प्रति निष्ठावान तथा श्रीजगन्नाथ जिनके राजराजेश्वर है  ....जिस देश में जाति धर्म का भेद न हो कोई किसीके अधीन न हो वो उत्कळ है...

୧୦.भ्रांत प्रश्नकारी वितर्क प्रेमी अन्य भारतीय जाति भी जिस भूमि के महानता के आगे नतमस्तक हो गये थे ।
कभी इस जातिको म्लेंच्छ कहके अपमानित करनेवाले भी समय के साथ इस उत्कल देश के अधिवासीओं के पुरुषार्थ देखके अपने वाक्य लौटाने को वाध्य हो गये थे ।
आगंगा गोदावरी समस्त पूर्व भारत जिस देश के महान सनातनी जगन्नाथ धर्म से प्रभावित है
यह है वह देश उत्कल ..

.............

ओडिआ साहित्य में उत्कल शब्द कई अर्थों
में प्रयोग होता है
1.उत्कण्ठित-- ज्ञान तथा कला के लिए जो उत्कंठित

୨.शिकारी,व्याध - शत्रुओं के शिकार में शिद्धहस्थ

୩.कर्कष गर्जना - शेर ही करते है भीरू नहीं ....

୪.बंगाली विश्वकोष लेखक उत्कल शब्द का एक अर्थ भारवाहक लिखें है..
अठारहवीं सदी से बीसवीं सदी तक कई ओडिआ बंगाल में भारवाहक का काम किया करते थे,माली हुआ करते थे,पाचक(रसौया) हुआ करते थे तो यह अर्थ बनाया गया ।
खैर हम वह भारवाहक अर्थ को भी सादर ग्रहण पूर्वक अपना सीना तानकर कहते है कि हाँ
हम वही भारवाहक उत्कलीय जाति है जिसने
भारतीय संस्कृती तथा भाषाको को अपने बोइत या बहीत्र में लादकर
इंडोनेशिया, मालेशिया,फिलपिन्स,कोरिया,मोरेसियस, चीन,जापान,श्रीलंका व मालडीव्स से लेकर माडागास्कर,एथिओपिया आदि देशों तक पहुंचाया......

#बंदेउत्कलजननी
#जयकलिगोंत्कल

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

ओडिशा विभाजन चाहना ओडिशा को गरीब बनाए रखने जैसा है

ओडिशा का विभाजन संभव नहीं है
यह तकनीकी रूप से संभव ही नहीं है।
तुम पूछोगे क्यों?
ऐसा इसलिए है
क्योंकि कोशल एक ऐतिहासिक भौगोलिक इकाई के रूप में आधुनिक ओडिशा से बहुत दूर है....

जो जमीन ओडिशा का हिस्सा नहीं है, आप इसे कैसे विभाजित कर सकते हैं.....

केवल कोशल राज्य के नाम पर तो बिल्कुल नहीं च्युंकि पौराणिक मिथकों के आधारों पर इतिहास व कानुन यकीन नहीं रखता ।
ओर यदि माना भी जाय तो कोशल राज्य उस समय समुचे उत्तर भारत में फैला हुआ था ऐसे में इसे भारत के सभी हिंदीभाषी कैसे स्वीकार कर लेंगे ।
पौराणिक आख्यानों के मुताबिक कोशल राज्य के दो टुकड़े हो कर के एक दक्षिण कोशल बनगया था.....
ओर ये दक्षिण कोशल दरसल आजका छत्तीसगढ़ ही है लेकिन कुछ ओडिशा के पश्चिमी भू-भागों को भी कोशल बताते फिर रहे है जो कि एक संघराज्य में किसी क्षेत्र विशेष के स्थिति पर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा है ।
कानुनन यह असंवैधानिक कृत्यों में से एक है !

ओडिशा के पश्चिमी भाग तो प्राचीन काल से ही कॉलिंगदेश के हिस्से रहें है ।
स्थानीय लोगों के जीवन को नष्ट करने और कुछ अनैतिक गुटों की ओर से उनके जीवन पर नियंत्रण हासिल करने के लिए एक राजनीतिक साजिश चलाया जा रहा है, ओर षडयन्त्र रचनेवाले सुत्रधर ओडिशा से नहीं है
लेकिन उन मदारीओं ने ओडिशा में कुछ बंदरों को पाल रखा है .....
जब उन्हें नाच देखना होता है
उनके तथाकथित कोशली बंदर जमकै नाच लेते है !!!!

चलो फिर भी ओडिशा के पश्चिमी हिस्सों को वर्तमान ओडिशा राज्य से विभाजित करने के विषय पर विचार करते है ....

आप मेरा यकीन किजिए, अगर ऐसा हुआ तो यहां पश्चिम ओडिशा में रहने वाले स्थानीय लोगों के लिए यह एक आपदा होगा.....
आप पूछोगे कैसे ?
आइए हम इसका विश्लेषण करें:

१.पहली बात तो यह होगा कि यदी कोशल के नाम पर ओडिशा का विभाजन हुआ तो वो  landlocked हो जाएगा ।
उत्कल के पास सारे पोर्ट होगें ओर
इससे पश्चिमी ओडिशा के व्यापारी तथा व्यापार दोनों ही प्रभावित होंगे !
२.ओडिआ लोग सबसे ज्यादा संबेदनशील होते है एक ओडिआ होने के नाते मुझे इस बात का एहशाश ओर यकीन है ।
यदि ओडिशा का विभाजन होता है तो दोनों क्षेत्रों के लोग एक दूसरे से नफ़रत करेंगे !
नफ़रत के वजह से पश्चिमी ओडिशा के लोग जगन्नाथ संस्कृति को त्याग देंगे ओर इस तरह से वहां वर्षों से जगन्नाथ संस्कृति के कारण पैर टिका न पानेवाला ख्रिस्तीआन् धर्म क़ायम हो जाएगा !!!!!

३. दोनों ही भू-भागों में नफ़रत के कारण आपसी झगडे चरम होगें
ओर मामला ज्यादा बिगड़ी तो गृहयुद्ध तक भी हो सकती है । आपसी घृणा व द्वेष के कारण दोनों ही भू-भागों में विकास नहीं हो पाएगा ओर दोनों क्षेत्रों को भारत के सबसे निचले स्तर पर रहना होगा.....

४.
कोशल खुद राजनीतिक रूप से अस्थिर हो जाएगा क्योंकि इसके लिए लड़ रहे लोगों ने अभी तक अपनी सीमा निर्धारित नहीं की है। कुछ नक्शे में, उन्होंने अनुगुल, कलाहांडी, कोरापुट जिले कोक्षशामिल किया है।
इनमें से कोई भी उन्हें शामिल होने में रुचि नहीं रखता है।
प्रो-कोसाला ग्रुप ने पहले स्थानीय लोगों से नगण्य सहायता के साथ-साथ विभिन्न अभियानों का आयोजन किया था, यहां तक ​​कि आंदोलन के केंद्र संबलपुर में भी खुब हो हल्ला मचाया था । लेकिन अंततः उसी संबलपुर में लोगों ने उनको झाडु मार मार कर भगदिया तो ये लोग आजकल बरगढ़ में कोशल कैंप चला रहे है ।
५.पश्चिमी ओडिशा से ओडिआ भाषाका जन्म हुआ ! पूरब ओडिशा के लोग संस्कृतभाषी ही थे कुछ लोग पाली भी बोला करते थे !!!!
सातवीं सदीमें संबलपुर क्षेत्र में उड्डीयान बौद्ध राज्य स्थापित होने के बाद वहां के सराह प्पा, कान्हु प्पा,लुई प्पा जैसे बौद्ध संन्यासीओं ने
उनके स्थानीय भाषा (ओडिआ) में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था जिससे संपूर्ण भारत प्रभावित हुआ था !!!!
इससे प्रभावित होकर पूर्व ओडिआ क्षेत्रों में पश्चिमी ओडिआ या उडि्डयन भाषा के साथ पाली, द्रविड़, आदिवासि तथा संस्कृत जैसे भाषाओं के मिश्रित ओडिआ भाषा का जन्म हुआ था । तो
यह इतिहास स्पष्ट रूप से एक संकेत है कि वहां रहने वाले लोग हार्ड कोर ओडिआ ही
हैं संबलपुरी नृत्य और संबलपुरी साड़ी ओडिसी और मणिवन्द साड़ी जितना ही लोकप्रिय रहा है ।
६.
राज्य सरकार की अनुदान पर रोना उतना सच है जितना यह झूठ है ओडिशा के पश्चिमी जिलों के सभी अनुदान संबलपुर-झारसुगुडा बेल्ट में केंद्रित हैं, इस प्रकार इसी क्षेत्र में अन्य जिलों की खराब स्थितियों को कम नहीं किया जा रहा है।
इस प्रकार, उनके हिस्से को खाए जाने वाली संस्था में शामिल होने के लिए उनके पास कम झुकाव है। बहरहाल उनके जितना ही गरीब पूर्व ओडिआ लोग भी है !!!! दोनों ही तरफ लुट तो नेता ओर बाहरी लोग ही रहे लेकिन दोष मात्र पूर्व ओडिआ लोगें के मत्थे ही मढ दिया जाता है ।

७.
एक शब्द के रूप में 'कोसल' का ओडिशा के पश्चिमी क्षेत्रों का कोई संबंध नहीं है।
हम कभी भी "कोसाली भाषा", "कोसाला डांस", "कोसली साड़ी" नहीं कहते हैं यह हमेशा "संबलपुरी भाषा", "संबलपुरी नृत्य", "संबलपुरी साड़ी" रहा है। आज से महज़ २० साल पहले कोशली नाम से कुछ न था.....
दरअसल​ ओडिआ भाषा में कोशली शब्द का अर्थ नाव से संबंधित है । ओडिशा में एक खास तरह के छोटे नावों को ही कोशली कहजाता था !!!!

८.भाषा के नाम पर ये लोग अलग राज्य बनाना चाहते हैं । लेकिन
संबलपुरी भाषा जिसे बंदरों ने कोशली कहना शुरू किया है वास्तव में स्वयं की एक अलग भाषा नहीं है। यह ओडिया  का अन्यतम बोली है !!!!!
दरअसल, संबलपुर और सुंदरगढ़ में बोले जाने बोली सामान्य भिन्न होता है ओर ऐसी भिन्नताएं गंजाम में भी है बालेश्वर में भी है ....
ओडिशा के हर क्षेत्र में कुछ कुछ खास शब्द प्रचलित है जो एक दुसरे से भिन्न होते है लेकिन यह शब्द भिन्नताएं नगन्य ही है लेकिन सभी ओडिआ बोलीओं में आपसी समानताएं प्रबल है । सिर्फ शब्दों के भिन्नताओं के लिए एक संस्कृतीवाली भू-भाग को बांटना न्याय संगत नहीं है ।
ऐसे शब्द भिन्नताएं ओडिशा के हर हिस्से में है ।

उदाहरण के लिए जाजपुर क्षेत्र में कछुआ को “kachhima” कहा जाता है, लेकिन ओडिशा के बाकी हिस्सों में  “Kainchha” है कही कहीं कंछिअ भी कहते है !!!!
क्या के लिए ढेंकानाल में किरा कहते है तो बालेश्वर में किस , गंजाम जिले में किअण ओर संबलपुर में केन्ता .....

तो सच्चाई तो यही है कि
यह छोटे मुद्दों पर एक निराधार लड़ाई है, जिसमें से कुछ गुट राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश कर रहे हैं।
ओडिशा के सभी जिलों के लोगों के बीच कई सौहार्दपूर्ण संबंध मौजूद हैं और सामान्य जनसंख्या इस लड़ाई में उलझन में कम दिलचस्पी रखती है। लेकिन, यह तथ्य अभी भी बनी हुई है कि राज्य सरकार को भुवनेश्वर पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय राज्य के समग्र विकास पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

सोमवार, 14 अगस्त 2017

दोरा_विशोई_ओर_चक्रा_विशोई दो_ऐसे_स्वतंत्रता_संग्रामी_जिनसे_शायद_ही_भारत_परिचित_हो


१८६५ में घुमुसर रियासत(गंजाम जिला) में आदिवासियों ने स्वतंत्रता संग्रामी
कमलोचन विशोई के साथ मिलकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह किया था....
कंध आदिवासियों के जंगल अधिकारों पर पाबंदी लगाकर अंग्रेजी सत्ता ने आष्ट्रिक जातियों को विद्रोही बनादिया था....
ये विद्रोह गंजाम,गजपति,रायगडा, कंधमाल जिलों में फैलता गया....
विभिन्न जगहों में सेंकडो अंग्रेज सैनिक व उनके समर्थकों को मारा गया
सिर्फ घुमुसर में ही एक लडाई में २ राज्यकर्मियों समेत ४८ अंग्रेज सैनिक मारेगये ....
उस दिन तो वहां से अंग्रेज दुम दबाकर भाग निकले.....
लेकिन बाद में कैप्टन् Edward russel के नेतृत्व में अंग्रेज सैनिक बहुत से कंध आदिवासियों को निर्ममता से हत्या करने लगे....

बच्चे बुढे औरत जो भी आदिवासी उनके सामने आ जाता वो मारा जाता....
कोई दया नहीं कि नीति पर थी कंपनी सरकार....
इस बीच विद्रोह ओर भी उग्र हुआ.....
दोरा विशोई कमलोचन जब अनगुल में थे वहां के स्थानीय राजा सोमनाथ सिंह ने उन्हें अंग्रेजों के हाथों पकडवा दिया.....
दोरा विशोई कमलोचन मृत्यु पर्यन्त मांद्राज के गुटि में जेलदंड भोगते रहे ओर मातृभूमि से दूर उनकी मृत्यु हो गई​ थीं.....

हालांकि दोरा विशोई के पकडे जाने पर भी कंध विद्रोह थमा नहीं था....
१८४६ में इस विद्रोह का नेतृत्व किया कमलोचन के भाई के पुत्र चक्रा विशोई नें....
लेकिन  तब तक कंध आंदोलन दिशाहीन हो गया था....
कंध अब समतल अंचल के स्थानीय अधीवासियों पर भी आक्रमक रवैया अपना रहे थे ।
च्युंकि कंधों के भूमिओं को छिनकर अंग्रेज उन भू-भागों को अपने गोरचटे साहुकार व्यापारीओं  दे रहे थे.....
तो उनपर
गाज तो गिरनी ही थी
ओर जब गिरी ज़ोरदार गिरी .....

तब कंपनी सरकार ने उन विद्रोहीओं को सबक सिखाने के लिए
पहले
Captain Mcpherson ओर बाद में Brigadier General Dice को नियुक्त किया था .....
१८४६ से १८५४ तक चले कंध आंदोलन को कुचलने के लिए दोनों अफसर कैप्टन एडवार्ड रॉसेल से भी बर्बर बने.....
लाखों आदिवासियों को बेहरमी से मार दिया गया....
कभी ढेंकानाल अनगुल क्षेत्र जिन शबर कन्ध आदिवासियों की लाखों वर्षों से मूल  हुआ करती थी अब यहां आदिवासी अल्पसंख्यक रह गये है....
खैर अंग्रेज आखरी दम तक लगे रहे लेकिन
कभी भी चक्रा विशोई को जीवित नहीं पकड़ पाये
जबतक जीवित रहा वह वीर लड़ता रहा.....
आज ये देख कर दु:ख लगता है कि ऐसे वीरों को उसके अपने लोग ही नहीं जानते है....
क्या उनका विद्रोह विफल गया ?
शायद नहीं
च्युंकि वह आज भी यहां के मिट्टी में खुन बनकर ही सही है ओर रहेंगे सदा हमारे हृदयों में....

#बंदेमातरम्
#बंदेउत्कलजननी

स्वराज भाया अलवत् होगा

पंडित निलकंठ दास जब उत्कलमणि गोपबंधु दास तथा भागिरथी मिश्र के साथ संबलपुर में थे
उन्होंने वहां असहयोग आंदोलन में प्रमुख भूमिका अदा किया था ।
संबलपुर में सभी ने मिलकर जातीय विद्यालय कि स्थापना किया था जिसमें पंडित नीलकंठ
प्रधान शिक्षक बनाए गये थे ।
वहां क्रान्तिकारीओं ने मिलकर "सेवा" नामसे एक पत्रिका प्रकाशित किया जाता था....
इस पत्रिका का ओडिशा के असहयोग आंदोलन में अहम योगदान रहा है ।
उन दिनों वहां के राष्ट्रीय सभा समितिओं
पंडित निलकंठ का एक उदवोधनी कविता काफी लोकप्रिय हुआ था
"स्वराज भाया अलवत्" होगा नाम से
यह हिंदी के साथ ओडिआ शब्दों को मिला कर लिखागया एक देशात्मवोधक गीत था.....
पैश है उस कविता के चंद लाइनें.....

स्वराज भाया अलवत्  होगा
छोडके आओ गुलामी
भारत लडका गोलाम  होके
काहे करो बदनामी ।।
गुलामहोंने मालुम नहीं कि
कैसे हें राज वेगारी
सबकुछ जाए दरियापारी
घर में हमलोग भिखारी ।।
स्कूल कचेरी काउन्सिल को
इयाद रखो बाबुजी
माया ये सब गोलामी का
इसमें नाइं भूलोजी.....!!
दिल में स्वाधीन दिल में गोलाम
दिल का बंधन नौकरी
दिल का मजा रखो भेइया
छोड दो सब सरकारी   !!

सोमवार, 7 अगस्त 2017

ओडिआ ओर लिथुआनिया है संस्कृत से सबसे नजदीकी भाषा

भारोपिय भाषाओं में सबसे शुद्ध भाषा है वेदभाषा । ओर वेदभाषा के नजदिकी भाषाओं में क्लासिक संस्कृत,पाली,आवेष्टान्,ग्रीक्,,लाटिन हि माने जाते है । अब इन भाषाओं में ज्यादातर विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गए हैं ।
लेकिन भारोपिय भाषा परिवार से फिलहाल दो भाषाएं ऐसे हे जो कि आर्यभाषा से काफी हद तक नजदीक बताये जाते है ।
एक है लिथुआनी या
लिथुआनियाई (लिटूवीओ कलाबा)
यह लिथुआनिया की आधिकारिक राज्य भाषा है और इसे यूरोपीय संघ की एक अधिकृत भाषा के रूप में मान्यता दी गई है। लिथुआनिया में लगभग 2.9 मिलियन मूल लिथुआनियाई बोलने वाले हे और लगभग 200,000 विदेश में हैं। लिथुआनियाई एक बाल्टिक भाषा है, लातविया से संबंधित है। यह भाषा लैटिन वर्णमाला में लिखा है। लिथुआनियाई को अक्सर सबसे रूढ़िवादी जीवित भारत-यूरोपीय भाषा कहा जाता है, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय के कई सुविधाओं को बनाए रखने में अब अन्य अन्य यूरोपीय-यूरोपीय भाषाओं में खो गया है।
इंडो-यूरोपियन भाषाओं में, लिथुआनियाई असाधारण रूप से रूढ़िवादी है, कई पुरातन सुविधाओं को बनाए रखना अन्यथा केवल प्राचीन भाषाओं में पाया जाता है जैसे संस्कृत या प्राचीन यूनानी.....

प्राचीन आर्यभाषा से सर्वाधिक नजदीक
दुसरी भाषा #odia है ।
ष्टिसार्ड ओ माली  जैसे भाषाविज्ञानीओं ने इसे प्राचीन आर्यभाषा का सबसे नजदीकी भाषा प्रमाणित किया है । हजारों मूल संस्कृत शब्द आज भी ओडिआ में उसके उसी प्राचीन स्वरूप के साथ प्रचलन में हें । वहीं हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं ने अरवी फार्सी से शब्द आहरण कर अपने भाषाओं से संस्कृत शब्द व्यवहार कम करदिया ।
ओडिआ को शास्त्रीय मान्यता मिलने के बाद यह बात ओर भी स्पष्ट हो चुका है कि हिंदी तथा बंगाली जैसे भाषाओं से भी कहीं अधिक समृद्ध व प्राचीन ओडिआभाषा ही है ।